Tuesday, November 10, 2020

चंद्रकला नाड़ी

                                                                             

  चंद्रकला नाड़ी के आदि लेखक प्रथम भाग के अच्युत प्रणीतम हैं दुतीय भाग के लेखक वैंकटेश जी है इसको दक्षिण भारत में देव केरलम के नाम से भी जाना जाता है सन 1992 में  आर संथानम जी के द्वारा चंद्रकला नाड़ी ग्रंथ को प्रकाश में लाया गया। 

इस चंद्रकला नाड़ी में अगस्त नाड़ी, काका भुजान्दर नाड़ी, वशिष्ठ नाड़ी,  ईश्वर नाड़ी ,ध्रुव नाड़ी, नंदी नाड़ी, पुल्लीपानी नाड़ी,सूर्य नाड़ी,  चंद्र नाड़ी , कुंज नाड़ी, बुध नाड़ी , गुरु नाड़ी, शुक्र नाड़ी, शनि नाड़ी, लग्न नाड़ी, लगनाधिपती नाड़ी, भृगु नाडी, सत्प नाड़ी, अगस्त नाड़ी, सप्त ऋषि नाड़ी , ईश्वर नाड़ी,  विशिष्ट नाड़ी, सूक्ष्म नाड़ी ग्रन्थ जैसे ग्रंथों का सार है इन सभी ग्रंथों के महत्वपूर्ण सूत्र इस चंद्रकला कल नाड़ी में शामिल किए गए हैं


Monday, November 9, 2020

ज्योतिष का इतिहास भाग 2

                                                                                 ॐ

DDHEERAJ PNDEY: 

आचार्य लगध मुनि का वेदांग ज्योतिष एक प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थ है। इसका काल 1350 ई पू माना जाता है। अतः यह संसार का ही सर्वप्राचीन ज्याेतिष ग्रन्थ माना जा सकता है। यह ज्योतिष का आधार ग्रन्थ है।

DDHEERAJ PNDEY: वेदांगज्योतिष कालविज्ञापक शास्त्र है। माना जाता है कि ठीक तिथि नक्षत्र पर किये गये यज्ञादि कार्य फल देते हैं अन्यथा नहीं। कहा गया है कि-

 वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः।

तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्येतिषं वेद स वेद यज्ञान् ॥ (आर्चज्यौतिषम् ३६, याजुषज्याेतिषम् ३)

चारो वेदों के पृथक् पृथक् ज्योतिषशास्त्र थे। उनमें से सामवेद का ज्यौतिषशास्त्र अप्राप्य है, शेष तीन वेदों के ज्यौतिषात्र प्राप्त होते हैं।

 ऋग्वेद का ज्यौतिष शास्त्र - आर्चज्याेतिषम् : इसमें ३६ पद्य हैं।

(२) यजुर्वेद का ज्यौतिष शास्त्र – याजुषज्याेतिषम् : इसमें ४४ पद्य हैं।

(३) अथर्ववेद ज्यौतिष शास्त्र - आथर्वणज्याेतिषम् : इसमें १६२ पद्य हैं।

इनमें ऋक् और यजुः ज्याेतिषाें के प्रणेता लगध नामक आचार्य हैं। अथर्व ज्याेतिष के प्रणेता का पता नहीं है।

 DDHEERAJ PNDEY: यजुर्वेद के ज्योतिष के चार संस्कृत भाष्य तथा व्याख्या भी प्राप्त होते हैं: एक सोमाकरविरचित प्राचीन भाष्य (सुधाकर द्विवेदी द्वारा सन् १९०८ में तथा शिवराज आचार्य काैण्डिन्न्यायन द्वारा सन् २००५ में प्रकाशित) , द्वितीय सुधाकर द्विवेदी द्वारा रचित नवीन भाष्य (प्रकाशन समय सन् १९०८), तृतीय सामशास्त्री द्वारा रचित दीपिका व्याख्या (समय १९४०), चतुर्थ शिवराज आचार्य काैण्डिन्न्यायन द्वारा रचित काैण्डिन्न्यायन-व्याख्यान (प्रकाशन समय सन् २००५)। वेदांगज्याेतिष के अर्थ की खाेज में जनार्दन बालाजी माेडक, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, लाला छाेटेलाल बार्हस्पत्य, लाे.बालगंगाधर तिलक का भी याेगदान है।

DDHEERAJ PNDEY: पीछे सिद्धान्त ज्याेतिष काल मेें ज्याेतिषशास्त्र के तीन स्कन्ध माने गए- सिद्धान्त, संहिता और होरा। इसीलिये इसे ज्योतिषशास्त्र को 'त्रिस्कन्ध' कहा जाता है। कहा गया है –

 सिद्धान्तसंहिताहोरारुपं स्कन्धत्रयात्मकम्।

वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिश्शास्त्रमनुत्तमम् ॥

वेदांगज्याेतिष सिद्धान्त ज्याेतिष है, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र की गति का गणित है। वेदांगज्योतिष में गणित के महत्त्व का प्रतिपादन इन शब्दों में किया गया है-

 DDHEERAJ PNDEY: यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।

तद्वद् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्॥ (याजुषज्याेतिषम् ४)

मतलब

 जिस प्रकार मोरों में शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे उपर है, उसी प्रकार सभी वेदांगशास्त्रों मे गणित अर्थात् ज्याेतिष का स्थान सबसे उपर है।

 DDHEERAJ PNDEY: वेदांगज्याेतिष में वेदाें में जैसा (शुक्लयजुर्वेद २७।४५, ३०।१५) ही पाँच वर्षाें का एक युग माना गया है (याजुष वे.ज्याे. ५)। वर्षारम्भ उत्तरायण, शिशिर ऋतु अाैर माघ अथवा तपस् महीने से माना गया है (याजुष वे.ज्याे. ६)।

युग के पाँच वर्षाें के नाम- संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, इद्वत्सर अाैर वत्सर हैं।

 DDHEERAJ PNDEY: अयन दाे हैं- उदगयन और दक्षिणायन। 

ऋतु छः हैं- शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् अाैर हेमन्त।

महीने बारह माने गए हैं - तपः (माघ), तपस्य (फाल्गुन), मधु (चैत्र), माधव (वैशाख), शुक्र (ज्येष्ठ), शुचि (अाषाढ), नभः (श्रावण), नभस्य (भाद्र), इष (आश्विन), उर्ज (कार्तिक), सहः (मार्गशीर्ष) और सहस्य (पाैष)।

DDHEERAJ PNDEY: अधिकमास शुचिमास अर्थात् अाषाढमास में तथा सहस्यमास अर्थात् पाैष में ही पडता है, अन्य मासाें में नहीं। 

पक्ष दाे हैं- शुक्ल और कृष्ण। 

तिथि शुक्लपक्ष में १५ और कृष्णपक्ष में १५ माने गए हैं। तिथिक्षय केवल चतुर्दशी में माना गया है। तिथिवृद्धि नहीं मानी गइ है। 

१५ मुहूर्ताें का दिन अाैर १५ मुहूर्ताें का रात्रि माने गए हैं।


Sunday, November 8, 2020

ज्योतिष का इतिहास भाग 1

                                                                         ॐ 

 [21:46, 11/8/2020] DDHEERAJ PNDEY:

  ब्रह्मा जी ने मानव जीवन के मकसद को निर्धारित करने के लिए ब्रह्मांड का संविधान रचा। इस संविधान में लगभग 100000 अध्याय थे। इन अध्यायो में  से ब्रह्मा जी ने धर्म, अर्थ, और काम पर 100 अध्यायों का उपदेश दिया।इन 100 अध्यायों में जीवन के अलग-अलग पहलुओं का विशद, संयम और निरूपण का  विस्तार किया गया ।

 इस संबिधान को  अलग-अलग तीन भागों में विभक्त किया गया ।धर्म , अर्थ और काम ।

इस धर्म भाग को उस ब्रह्मा जी के संविधान से अलग कर ज्योतिष का विस्तार किया गया ।मानव जीवन में होने वाली घटनाओं को पहले से जानकर अपने जीवन में अपने कर्मों द्वारा अपने जीवन में सुधार करने के लिए ज्योतिष का विस्तार किया गया।

 इस ही धर्म भाग से मनु जी ने मनुस्मृति की रचना की।

 फिर इस संविधान के अर्थ भाग को अलग कर के ब्रह्मा जी ने  बाह्रसप्तयम अर्थशास्त्र की रचना की।कौटिल्य जी का अर्थशास्त्र ब्रह्मा जी के अर्थशास्त्र के अंतर्गत ही मिलता है।

फिर इस काम भाग को ब्रह्मा जी के संबिधान से नन्दी जी मे अलग कर के काम शास्त्र के एक हाजर अध्यायों की रचना की।

इस प्रकार धर्म, अर्थ, और काम की रचना हुई। 

धर्म भाग में ज्योतिष की रचना की गई। इस धर्म भाग का विस्तार मनु जी ने किया।

अर्थ भाग का विस्तार पहले ब्रह्मा जी ने फिर कौटिल्य जी ने किया।

काम भाग को पहले नन्दी और श्वेतवर्त जी ने फिर बाद में वात्स्यायन ऋषि ने 7 भागो में बांट कर किया

 ज्योतिष शास्त्र एक बहुत ही वृहद ज्ञान है। इसे सीखना आसान नहीं है। ज्योतिष शास्त्र को सीखने से पहले इस शास्त्र को समझना आवश्यक है। सामान्य भाषा में कहें तो ज्योतिष माने वह विद्या या शास्त्र जिसके द्वारा आकाश स्थित ग्रहों, नक्षत्रों आदि की गति, परिमाप, दूरी इत्या‍दि का निश्चय किया जाता है।

 ज्योतिष शास्त्र की व्युत्पत्ति 'ज्योतिषां सूर्यादि ग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्‌' की गई है। हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि ज्योतिष भाग्य या किस्मत बताने का कोई खेल-तमाशा नहीं है। यह विशुद्ध रूप से एक विज्ञान है। ज्योतिष शास्त्र वेद का अंग है।

 ज्योतिष शब्द की उत्पत्ति 'द्युत दीप्तों' धातु से हुई है। इसका अर्थ, अग्नि, प्रकाश व नक्षत्र होता है।

 ज्योतिष शास्त्र की व्युत्पत्ति 'ज्योतिषां सूर्यादि ग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्‌' की गई है। हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि ज्योतिष भाग्य या किस्मत बताने का कोई खेल-तमाशा नहीं है। यह विशुद्ध रूप से एक विज्ञान है। ज्योतिष शास्त्र वेद का अंग है।

 कल्पद्रुम के अनुसार ज्योतिर्मय सूर्यादि ग्रहों की गति, ग्रहण इत्यादि को लेकर लिखे गए वेदांग शास्त्र का नाम ही ज्योतिष है।

 छः प्रकार के वेदांगों में ज्योतिष मयूर की शिखा व नाग की मणि के समान सर्वोपरी महत्व को धारण करते हुए मूर्धन्य स्थान को प्राप्त होता है।

 सायणाचार्य ने ऋग्वेद भाष्य भूमिका में लिखा है कि ज्योतिष का मुख्य प्रयोजन अनुष्ठेय यज्ञ के उचित काल का संशोधन करना है।

 ज्योतिष शास्त्र के द्वारा मनुष्य आकाशीय-चमत्कारों से परिचित होता है। फलतः वह जनसाधारण को सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्र-सूर्य ग्रहण, ग्रहों की स्थिति, ग्रहों की युति, ग्रह युद्ध, चन्द्र श्रृगान्नति, ऋतु परिवर्तन, अयन एवं मौसम के बारे में सही-सही व महत्वपूर्ण जानकारी दे सकता है। इसलिए ज्योतिष विद्या का बड़ा महत्व है।

 महर्षि वशिष्ठ का कहना है कि प्रत्येक ब्राह्मण को निष्कारण पुण्यदायी इस रहस्यमय विद्या का भली-भाँति अध्ययन करना चाहिए क्योंकि इसके ज्ञान से धर्म-अर्थ-मोक्ष और अग्रगण्य यश की प्राप्ति होती है। एक अन्य ऋषि के अनुसार ज्योतिष के दुर्गम्य भाग्यचक्र को पहचान पाना बहुत कठिन है परन्तु जो जान लेते हैं, वे इस लोक से सुख-सम्पन्नता व प्रसिद्धि को प्राप्त करते हैं तथा मृत्यु के उपरान्त स्वर्ग-लोक को शोभित करते हैं।

 ज्योतिष वास्तव में संभावनाओं का शास्त्र है। सारावली के अनुसार इस शास्त्र का सही ज्ञान मनुष्य के धन अर्जित करने में बड़ा सहायक होता है क्योंकि ज्योतिष जब शुभ समय बताता है तो किसी भी कार्य में हाथ डालने पर सफलता की प्राप्ति होती है इसके विपरीत स्थिति होने पर व्यक्ति उस कार्य में हाथ नहीं डालता।

 वृहदसंहिता में वराहमिहिर ने तो यहां तक कहा है कि यदि व्यक्ति अपवित्र, शूद्र या मलेच्छ हो अथवा यवन भी हो, तो इस शास्त्र के विधिवत अध्ययन से ऋषि के समान पूज्य, आदर व श्रद्धा का पात्र बन जाता है।

 ज्योतिष सूचना व संभावनाओं का शास्त्र है। ज्योतिष गणना के अनुसार अष्टमी व पूर्णिमा को समुद्र में ज्वार-भाटे का समय निश्चित किया जाता है। वैज्ञानिक चन्द्र तिथियों व नक्षत्रों का प्रयोग अब कृषि में करने लगे हैं। ज्योतिष शास्त्र भविष्य में होने वाली दुर्घटनाओं व कठिनाइयों के प्रति मनुष्य को सावधान कर देता है। रोग निदान में भी ज्योतिष का बड़ा योगदान है।

 दैनिक जीवन में हम देखते हैं कि जहां बड़े-बड़े चिकित्सक असफल हो जाते हैं, डॉक्टर थककर बीमारी व मरीज से निराश हो जाते हैं वही मन्त्र-आशीर्वाद, प्रार्थनाएँ, टोटके व अनुष्ठान काम कर जाते हैं।

 ज्‍योतिष विषय वेदों जितना ही प्राचीन है। प्राचीन काल में ग्रह, नक्षत्र और अन्‍य खगोलीय पिण्‍डों का अध्‍ययन करने के विषय को ही ज्‍योतिष कहा गया था। इसके गणित भाग के बारे में तो बहुत स्‍पष्‍टता से कहा जा सकता है कि इसके बारे में वेदों में स्‍पष्‍ट गणनाएं दी हुई हैं। फलित भाग के बारे में बहुत बाद में जानकारी मिलती है।

 भारतीय आचार्यों द्वारा रचित ज्योतिष की पाण्डुलिपियों की संख्या एक लाख से भी अधिक है। 

प्राचीनकाल में गणित एवं ज्यौतिष समानार्थी थे परन्तु आगे चलकर इनके तीन भाग हो गए।

 (१) तन्त्र या सिद्धान्त - गणित द्वारा ग्रहों की गतियों और नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त करना तथा उन्हें निश्चित करना।

(२) होरा - जिसका सम्बन्ध कुण्डली बनाने से था। इसके तीन उपविभाग थे । क- जातक, ख- यात्रा, ग- विवाह ।

(३) शाखा - यह एक विस्तृत भाग था जिसमें शकुन परीक्षण, लक्षणपरीक्षण एवं भविष्य सूचन का विवरण था।

इन तीनों स्कन्धों ( तन्त्र-होरा-शाखा ) का जो ज्ञाता होता था उसे 'संहितापारग' कहा जाता था।

तन्त्र या सिद्धान्त में मुख्यतः दो भाग होते हैं, एक में ग्रह आदि की गणना और दूसरे में सृष्टि-आरम्भ, गोल विचार, यन्त्ररचना और कालगणना सम्बम्धी मान रहते हैं। तत्र और सिद्धान्त को बिल्कुल पृथक् नहीं रखा जा सकता ।

सिद्धान्त, तन्त्र और करण के लक्षणों में यह है कि ग्रहगणित का विचार जिसमें कल्पादि या सृष्टयादि से हो वह सिद्धान्त, जिसमें महायुगादि से हो वह तन्त्र और जिसमें किसी इष्टशक से (जैसे कलियुग के आरम्भ से) हो वह करण कहलाता है ।

मात्र ग्रहगणित की दृष्टि से देखा जाय तो इन तीनों में कोई भेद नहीं है। सिद्धान्त, तन्त्र या करण ग्रन्थ के जिन प्रकरणों में ग्रहगणित का विचार रहता है वे क्रमशः इस प्रकार हैं-

 1-मध्यमाधिकार 2–स्पष्टाधिकार 3-त्रिप्रश्नाधिकार 4-चन्द्रग्रहणाधिकार 5-सूर्यग्रहणाधिकार6-छायाधिकार

 7–उदयास्ताधिकार 8-शृङ्गोन्नत्यधिकार 9-ग्रहयुत्यधिकार 10-याताधिकार

 वेद, विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं।

वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् ज्ञाने धातु से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं।

 आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -

ऋग्वेद - सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद जिसमें मन्त्रों की संख्या 10627 है। इसका मूल विषय ज्ञान है। विभिन्न देवताओं का वर्णन है तथा ईश्वर की स्तुति आदि।

 यजुर्वेद - इसमें कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये 1975 गद्यात्मक मन्त्र हैं।

सामवेद - इस वेद का प्रमुख विषय उपासना है। संगीत में गाने के लिये 1875 संगीतमय मंत्र।

अथर्ववेद - इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये 5977 कवितामयी मन्त्र हैं।

                                                                                                                                    धन्यवाद

ग्रह आकाशीय पिंड हैं..........

 Learn Naadi Astrology S Dhiraaj Pandey 9935176170 ग्रह आकाशीय पिंड हैं जो एक तारे के चारों ओर परिक्रमा करते हैं और स्वयं का प्रकाश उत्पन्न ...